Sunday, June 18, 2017

मलाई बाबू की फैक्टरी

एक थे मलाई बाबू, उनकी एक फैक्टरी थी, जिसमें करीब बीस लोग काम करते थे

मलाई बाबू बड़े सयाने सबसे खींच कर काम लेते, टाइम पे तनख्वाह देते, जो माल बनता उसको दुगुने दाम पर बाहर बेचते और महीने के महीने ऊपर की मलाई खा जाते अपने कारीगरों की हारी-बीमारी में हमेशा तैयार रहते उनकी मदद करते, पूजा और जागरण में बढ़िया चन्दा देते  
 
मतलब सब मजे में और व्यवस्थित चल रहा था  लेकिन बस एक बात थी --मलाई बाबू को भूख कुछ अधिक लगती थी इसलिए वे हमेशा ज्यादा  से ज्यादा मलाई का इंतजाम करने की जुगत में भी रहते थे इसको वे तरक्की कहते थे और यह भी कहते थे कि सबको तरक्की करनी चाहिए, बिना तरक्की के कोई जिंदगी नहीं है  अपने कारीगरों को भी वे तरक्की करने के लिए उकसाते, जिसका मतलब होता कि ज्यादा से ज्यादा माल कम से कम समय में बनाओ    

जाहिर है कि मलाई बाबू की फैक्टरी में जो माल बनता उसमें हाथ का काम ज्यादा होता था इसलिए कारीगरों की भूमिका बहुत रहती थी, और शायद इसीलिए मलाई बाबू अपने कारीगरों की पूरी देखभाल करते थे और अच्छे कारीगरों पर फ़िदा भी रहते थे 


फिर एक दिन एक और बाबू साहब आये, मलाई बाबू को उन्होंने कुछ मशीनों की बाबत बताया और यह भी बताया कि एक मशीन सौ-सौ कारीगरों के बराबर माल बना सकती है लेकिन मशीन की कीमत कुछ ज्यादा थी, इतनी कि मलाई बाबू  अगर अब तक की खायी हुई  सारी मलाई उगल देते तब भी उसका दाम नहीं चुका सकते थे 

लेकिन इसी समय उसी शहर में रहने वाले बैंक बाबू मेहरबान हुए और उन्होंने मलाई बाबू को कर्ज लेने की सलाह दे डाली   बैंक बाबू ने समझाया कि मशीन के आते ही महीने में दस गुना माल बनेगा, और बनेगा तो बिकेगा, बिकेगा तो मलाई भी दस गुनी आएगी और कर्जा तो चुटकियों में चुक जाएगा मलाई बाबू को बात जंच गयी  उन्होंने मशीन खरीद डाली और कुछ ही दिनों में जहाँ कारीगर बैठते ऊंघते और बतियाते हुए काम करते थे वहां एक बढ़िया चमचमाती मशीन हरहराने लगी  माल बन बन के बाहर बिजली की सी तेजी से आने लगा इकठ्ठा होने लगा  कारीगर ख़ुशी  और आश्चर्य से देखते रहे, एक बार फिर उन्होंने अपने मालिक के दिमाग और समझदारी का लोहा मान लिया और उनके मन में मलाई बाबू  के लिए श्रद्धा उमड़ आई  मलाई बाबू ने उनमे से कुछ कारीगरों को मशीन चलाना भी सिखाया और उन कारीगरों का दर्जा बाकियों के बीच खास हो गया   

खैर, महीना बीता और तनख्वाह का दिन आया सबको तनख्वाह मिली लेकिन उसी के साथ बीस में से पंद्रह मजदूरों को छुट्टी का भी आदेश मिला, क्योंकि अब उनकी जरूरत नहीं रह गयी थी  पांच को दिन रात मशीन चलाने और ऊपरी देखभाल के लिए रख कर मलाई बाबू ने बाकी पंद्रह को घर भेज दिया  

इसके बाद निम्नलिखित बातें और हुईं ----

१. ज्यादा माल बनाने के लिए ज्यादा कच्चे माल की जरूरत आन पड़ी जिसके लिए पास में अतिरिक्त पूँजी न होने से मलाई बाबू ने बैंक से और कर्ज लिया, और बैंक ने ख़ुशी ख़ुशी दिया.

२. जिन मजदूरों की काम से छुट्टी हो गयी थी उनके पास पैसे न होने से उनकी क्रय शक्ति में कमी आई और इतना ही नहीं उनके खाने के भी लाले पड गए और जाहिर है कि वे और भी कम वेतन में काम करने को उपलब्ध हो गए.
3. इधर मलाई बाबू की मशीनों के बढ़ाये उत्पादन की बदौलत बाजार में  माल की भी भरमार हो गयी.

४. खरीदार  न होने या कम होने और माल की भरमार की वजह से मलाई बाबू  को अपने माल के  दाम भी घटाने  पड़े जिससे उनका मुनाफा कम हुआ.

५. मुनाफा कम होने से मलाई बाबू की मलाई ही और ज्यादा नहीं पतली हुई, बल्कि उनकी हालत भी पहले से ज्यादा पतली हुई, क्योंकि माल बिके, न बिके, सस्ता बिके या उधार बिके उनको मशीनों और कच्चे माल की खरीद के लिए  लिया हुआ कर्ज तो ब्याज समेत चुकाना था, जिससे वे मुकर नहीं सकते थे क्योंकि इसके लिए उन्होंने अपना घर भी बैंक के पास गिरवी रखा था    .
 
लेकिन जो भी होता या हुआ, मलाई बाबू का तो विकास हो चुका था और उनके कारीगर भी अब एक विकसित दुनिया में आगे बढ़ने को मजबूर थे सो इससे भी आगे चलकर कई अन्य परिवर्तन देखने को मिले.

१. फैक्टरी में माल तो खूब बना लेकिन बाजार ठंडा होने से बिक्री नहीं हुयी तो मलाई बाबू की किश्तें रुक गयीं, फिर उन्होंने कोई दूसरा बहाना करके बैंक से एक और लोन लिया जिसका आधा तो  पिछले लोन का ब्याज चुकाने में ही चला गया.

२. उनके निकाले हुए कारीगरों में जिन्हें कहीं और कोई काम न मिल पाया वो इधर उधर से झूठे सच्चे वादे करके पेट पालने के लिए कर्ज लेते रहे या अपना कुछ न कुछ बेचते रहे. सुनते हैं कुछ ने आत्महत्या भी की.

३. कामगारों में क्रयशक्ति चुक जाने से बाजार ठंडा था और वह ठण्ड सबको अपनी चपेट में ले रही थी.... इतनी कि देश का वित्त भी चित्त होने को आ गया.




अंत में यहाँ यह भी जोड़ना जरूरी है  कि देश में मलाई बाबू अकेले नहीं थे और न उनकी ही एक मात्र फैक्ट्री थी जो माल बनाती थी. देश लाखों मलाई बाबुओं से भरा पड़ा था और करोड़ों कारीगरों से..... और सबके सब अपने को इस नयी स्थिति के मुकाबिल पा रहे थे और अपने ढंग से इससे निपटने में लगे थे लेकिन फिर भी अधिकाँश लोगों की जेबों में वह आइटम हमेशा जरूरत से कम ही ठहरता था, जिसे पैसा कहते हैं.  

लेकिन इस सब झमेले से अलग बैंक बाबू नाम का जो आदमी था वह उसी शहर में  बड़े मजे में था. वह लोगों को, उनकी कोई न कोई कीमती चीज अपने पास गिरवी रखकर,  दिल खोल कर  पैसे दे रहा था.

पर यह न भूलिए कि ये वही पैसे थे जो लोगों ने अपनी कमाई से बचत करके उसके पास रख छोड़े थे.     

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इतना हो जाने के बाद देश के कर्णधारों के बालों में सोयी हुयी जुएँ जाग उठीं  और उनके कानों पर चढ़कर रेंगने लगीं... फलतः वे भी जागे और  देश के नागरिकों को पीड़ा में देखकर पीड़ित होने का नाटक करने को बाध्य हुए.

नाटक के प्रथम दृश्य में उन्होंने इस बदली हुयी स्थिति की तारीफ़ करनी शुरू की और लोगों को बताया कि हम आगे बढ़ रहे हैं और दुनिया के कदम के साथ कदम मिलाकर विकास कर रहे हैं ... और विकास करना रोटी खाने और सुखी संतुष्ट रहने से भी ज्यादा जरूरी है, और यह भी कि विकास करने के लिए असंतुष्ट रहना भी बहुत जरूरी है! और विकास करना तो बहुतै ज्यादा जरूरी है क्योंकि पूरी दुनिया विकास कर रही है और सिर्फ विकास करने के लिए ही जमीनें खोद रही है और आसमान में उछालें मार रही है !

दूसरे दृश्य में कर्णधारों ने देशवासियों से अपील की कि वे विकास करने के लिए बैंक से जितना चाहें रूपया ले लें और विकास करें, उन्होंने बैंको को कहा कि वे लोगों को रूपया दें और विकास करवायें, नहीं तो लोगों का जो पैसा उन्होंने जमा कर रखा है उस पर कल को ब्याज कहाँ से देंगे ? 

इस तरह अपना सबसे प्रिय काम (यानी कि बोलना) करके कर्णधार चुप हो गए और बाकी दुनिया की खैर खबर लेने में लग गए क्योंकि उन्हें अक्सर बाहर जाकर भी कुछ न कुछ बोलना पड़ता था .

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तो धैर्यवान पाठको ! इस तरह देश के सैकड़ों मलाई बाबू लोग अपने ही लालच के जाल में फंस गए, और ऊपर से मालामाल और भीतर से कंगाल होते गए. कामगार और मजदूर बेकार होते गए, देश के कर्णधार  अपनी अपनी फड़ जमाकर जादू का खेल दिखाने के काम में लग गये, जिनसे पस्तहाल  कामगार थोडा मस्तहाल हो सकें.

एक चकाचक युग का उदय हो गया था. चारों तरफ हचक के रूपया कमाने की होड़ लग गयी थी ...रूपया और सिर्फ रूपया ...कहीं से भी किसी भी तरह .....हाथों के बूते कुछ बनाने, बेचने और जरूरत के पैसे कमाने का सिलसिला मशीनों के एक क्रांतिकारी हल्ले में दम तोड़ गया था. हाथों को काम नहीं था मगर मशीने दनादन चल रही थीं. चमकदार सामानों से बाजार अंटे पड़े थे, मगर खरीददार कम होते जा रहे थे.  मलाई बाबुओं की कडाही बड़ी लेकिन  मलाई पतली होती जा रही थी.

कामगारों की चिंता कामगार करें या उनके रिश्तेदार करें, फिलहाल मलाई बाबुओं की चिंता का हरण करने के लिए देश के कर्णधार चिंतित हो उठे और उन्होंने बैंक बाबुओं की पूरी फ़ौज इस काम में लगा दी. बैंक बाबुओं ने खरीददारों को उकसाने के अनेक जुगाड़ बनाये, उन्हें जेब में साईकिल भर के पैसे होते हुए मोटरसाईकिल और मोटरसाईकिल भर के पैसे  होते हुए कार खरीदने की जुगत बताई जिससे बाजार का थमता पहिया घूमता रह सके.

आगे चलकर नतीजा यह हुआ कि बेरोजगार लोग कर्ज लेते और नई चीजें खरीद लेते, मलाई पतली होते हुए भी मलाई बाबू लोग बैंक से खींच कर कर्ज लेते और अपनी फैक्टरी में झोंक देते अंधाधुंध माल बनाते और बाजार में झोंक देते. आम लोग और बेकाम लोग भी फिर से कर्ज लेते और कर्ज के पैसे के साथ अपनी खुशियाँ भी बाजार में झोंक देते. झोंका झोंकी का यह अंधा खेल कभी कभी झोंटा झोंटी में भी बदल जाता और खबर नवीसों को  नया दिलचस्प आइटम मिल  जाता.    

इस बीच देश के कर्णधारों जाने कैसे पता चल गया  कि जनता पिस रही है और उसी चक्की में पिस रही है जिस चक्की का आटा  खा-खा कर वे मुटा रहे थे तो उन्होंने परेशान लोगों का कल्याण करने की ठान ली और दनादन अपना दूसरा प्रिय काम शुरू किया जिसे योजना बनाना कहते हैं. इन योजनाओं में  कुछ लोगों की कर्ज माफ़ी, आवश्यक  वस्तुओं की कीमतों में छूट और यहाँ तक कि काम के  बदले अनाज और पैसा दिए जाने की रंग बिरंगी योजनायें शामिल थीं. लोगों ने योजनायें देखीं, चखीं और भोगीं और उनपर वोटों की बौछार कर दी.... और कर्ण धार जनता को सुखी और इसीलिए बेकार मानकर फिर वापस अपने खोल में लौट गए.  
आज कई दशक बीत गए अब यह बाकायदा एक सिलसिला है, परंपरा है, मनोरंजन है रोजगार भी है. मलाई बाबू लोग कर्ज में हैं. कामगार हों, किसान हों, दुकानदार हों, सेवादार हों या खुद माबदौलत सरकार हों --- सभी कर्ज में हैं. कर्ज अब मर्ज नहीं रहा हमारे विकसित समाज की प्राणवायु है जिसका सेवन करना आधुनिकता के बीच जिन्दा रहने की पहली शर्त है. कर्ज हमारी जीवनी शक्ति है उसपर हमें गर्व है !

यह आराम का युग है, हाथों को काम नहीं है, हाथ काम करना भूल चुके अब, वे सिर्फ बटन दबाते हैं.


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अब इस कहानी को इस ब्लॉग में  पहले कही गयी मुद्रा  यानि करेंसी की कहानी की पृष्ठभूमि में पढ़िए और इस युग की सबसे बड़ी विसंगति की ओर एक नजर दौड़ाइये.  

आप पाते हैं कि करेंसी दिन रात पैदा हो रही है क्योंकि सिर्फ छापेखाने से पैदा की जा सकती है और उसके लिए मात्र देश के कर्णधारों और कुछ बाबू टाइप लोगों के दस्तखत चाहिए जब कि जीवनोपयोगी वस्तुएं  प्राकृतिक स्रोतों के दोहन से बनती हैं और उनकी सीमा है इसलिए किसी भी गणित से प्राकृतिक या मशीनी उत्पादों की मात्रा के साथ करेंसी की संगति नहीं बैठ सकती; अगर उसे छापने वाले और संग्रह करने वालों की योजना में मलाई का लालच शुमार है. पर  लालच तो हमारे युग की एक मात्र चालक शक्ति है. मत भूलिए कि मलाई बाबू ने मशीन भी लालचवश ही खरीदी थी.

ऐसा नहीं है कि सरकारी या व्यापारी लोग इस विसंगति को नहीं समझते. वे  तो यह भी समझते हैं कि इस विसंगति के चलते उनकी व्यवस्था का पहिया हमेशा नहीं घूमता  रह सकता इसलिए वे उसकी सूखती धुरी में तेल डालने का काम भी करते रहते हैं. “कॉर्पोरेट सामाजिक जिम्मेदारी” और सरकारी “जन कल्याण योजनायें” इसीलिए चलायी  जाती हैं कि अंधाधुंध मुनाफा और  टैक्स के तंत्र द्वारा फिर कुछ चुनिन्दा जगहों में इकठ्ठा हुआ पैसा वापस तंत्र में पहुंचे और फिर से और अधिक मुनाफा अर्जित करने का बायस बने.

अगली कहानी में आपको बताएँगे कि कैसे चढ़ाया भेड़ियों ने अपने  ऊपर हिरन का खोल, और खोलेंगे जनकल्याण  योजनाओं की पोल.

Saturday, April 29, 2017

भोलूभाई ट्यूबलाईट की अठन्नी

 भोलूभाई मिसरा ट्यूबलाईट थे इसलिए पढ़ने लिखने से ज्यादा वास्ता नहीं रख सके. दरअसल बातें उनकी समझ में देर से आतीं थीं, और कभी समय पर याद भी नहीं आती थीं, इसलिए स्कूली इम्तहान में वे लटक जाते थे. यहाँ तक कि किसी चुटकुले या हंसाने वाली बात पर भी वे मुंह बाए यूँ ही देखते रह जाते जब कि उनके आस पास के लोग ठठा कर हंसते या दांत चियारते. खैर किसी तरह जब स्कूल से जान छूटी और वे सुखी होने ही वाले थे कि उनकी शादी हो गयी.
शादी के बाद जब घर परिवार से कमाई का दबाव आया तो शहर जाकर एक सेठ के यहाँ नौकरी कर ली. नौकरी इस मामले में बड़े मजे की थी कि दिन भर कुछ मेहनत का काम नहीं करना पड़ता था. सेठ उन पर बहुत यकीन करता था, इतना ज्यादा कि दूकान की चाभी उन्हें ही सौंप देता और दोपहर के समय तो सारी दूकान और ग्राहक भोलूभाई मिसरा के भरोसे छोड़कर खाना खाने घर चला जाता.
लेकिन भोलूभाई मिसरा के ट्यूबलाईट होने का मतलब यह तो नहीं उनके पास दिमाग था ही नहीं! बल्कि जितना भी था उसे वे दूसरों की बातें ध्यान से सुनने और समझने में पूरा लगाते और जब बात समझ आ जाती तो मन ही मन मुस्कराते या सिर हिलाते. इधर वे एक बात बहुत दिन से दिमाग में बसाए हुए थे, या सच कहें तो एक बात उनके दिमाग में बार बार टकराती थी क्योंकि उनका सेठ दूकान में बैठे-बैठे दिन में दो-चार बार लोगों को सुनाने के लिए वह बात बोल ही देता था.
वह बात थी ---“पैसा, हमेशा पैसे को खींचता है”
उन्होंने सोचा- “यह तो अजीब हुआ कि पैसा, पैसे को खींचे! ऐसा भला कैसे हो सकता है?” भोलूभाई सोचते लेकिन उनकी खोपड़ी सांय-सांय करने लगती. जब उन्होंने इसपर बहुत दिन तक अपना दिमाग लगाया तब जाकर उनके समझ में कुछ आया. आखिरकार उनकी ट्यूबलाईट जली और उन्हें एक उपाय सूझा. एक दिन उन्होंने दृढ निश्चय किया कि आज वे भी पैसे से पैसा खींच कर रहेंगे. उन्होंने अपनी जेब में हाथ डाला, महीने की आखिरी तारीख थी और उनकी जेब में सिर्फ कुछ सिक्के बचे थे. अब वे दोपहर होने के इंतज़ार करने लगे कि सेठ खाना खाने घर जाए तो वे अपना प्रयोग शुरू करें.
दूकान में बिक्री की रकम को रखने के लिए एक पुरानी तरह का संदूक था जिसके ढक्कन में एक झिरी कटी हुई थी, उसका फायदा यह था कि सेठ छोटी-मोटी रेजगारी उसी झिरी में से संदूक में गिरा देता था और उसे बार-बार ढक्कन खोलने की जरूरत नहीं होती थी. भोलूभाई का टारगेट यही झिरी थी. एक दिन जैसे ही सेठ दोपहर में खाना खाने गया भोलूभाई ने अपनी जेब से एक अठन्नी का सिक्का निकला और झिरी में टिका दिया और दूसरी तरफ से वे उसे चुटकी में मजबूती के साथ पकडे रहे. सेठ की कही बात के अनुसार और अब उनके अपने दिमाग के अनुसार भी उनका पैसा सेठ के पैसे को खींचने के लिए तैयार था!
इस तरह बहुत देर हो गयी, एक घंटा होने को आया लेकिन संदूक का एक भी पैसा भोलूभाई मिसरा के सिक्के से न टकाराया, न चिपका कि वे उसे अपनी ओर खींच लेते. आखिरकार उनके हाथ थकने लगे, वे ऊबने लगे और उन्हें अपने सेठ पर गुस्सा भी आने लगा कि उसने झूठ-मूठ बात बोल कर उन्हें यह सब करने के लिए उकसाया. भोलूभाई की बढती खुंदक के साथ ही उनकी पकड़ ढीली हुयी और उनका सिक्का टप्प से संदूक के अन्दर जा गिरा.
लेकिन इस बार उनके दिमाग की ट्यूबलाइट एकदम से भकभकाकर जल उठी और उन्हें सेठ की बात वापस से सही लगने लगी क्योंकि सेठ के पैसे ने उनके पैसे को खींच लिया था!
तो धैर्यधन्य पाठकों ! आप बहुत बुद्धिमान हैं और आपकी दुनिया में भोलूभाई जैसे लोग तो नहीं ही होंगे फिर भी भोलूभाई की इस कथा से अपने मतलब की शिक्षा लपक लीजिये और आगे बढिए.

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तो भोलूभाई ट्यूबलाईट की कहानी की शिक्षा यह रही कि “अधिक पैसा कम पैसे को अपनी ओर खींचता है!”
ताकतवर और धूर्त लोगो ने पैसे की ईजाद कर डाली और ऐसी जुगत लगाई कि आप कर्ज में चले जाएँ, उसे चुकाने में आपकी संपत्तियां छिन जायें, फिर वे आपसे जमकर मेहनत मजदूरी कराएं और बदले में आपको अपने छापे हुए पैसे दें, जिन्हें वापस आप उन्ही को सौंप कर अपनी जिंदगी की जरूरतों को पूरा करने के सामान जुटाएं. और इस तरह उनके पास अधिक से अधिक पैसे जमा होते जायें. बैंक आये, बाजार आये, आपको फुसलाने और बहकाने के लिए के इंतजाम हजार आये .
बाजार आपको कुछ ऐसे ललचाता है कि आप सब कुछ होते हुए भी अहसासे कमतरी से उबर न पाएं. दिन रात आपकी आँख इश्तहार पर और आपका हाथ अपनी जेब पर बना रहे. और इस तरह की जिंदगी बसर करते आप उनके वाजिब असर में बने रहें, और वो जिसको कहते हैं इकॉनमी और जो वास्तव में कर्ज बांटने और उसे वसूलने का तंत्र है --की सेवा में तने रहे. आज हम और आप वस्तुओं के अन्तर्निहित या वास्तविक मूल्य से कई गुना अधिक उनका आभासी मूल्य चुका कर खुश हैं और उनका बखान भी करते नहीं थकते.
मुद्रा, बैंकिंग और बाजार के आगे का एक तंत्र है--वायदा बाजार, जहाँ न कुछ बनता है और न कुछ उगता है. यह पैसा खींचने की अत्याधुनिक मशीन है जो लालच और डर से संचालित होती है और इसमें कम पैसे से अधिक पैसा बनाने के चक्कर में दुनिया भर के भोलुभाई अपनी अठन्नियां लेकर दिन रात पिले पड़े रहते हैं. यहाँ झूठ का बोलबाला और सच्चे का मुंह काला होता है. यहाँ यह काम कानूनी तौर पर पूरी शिद्दत से होता है ! और असंख्य कम पैसे वाले लोग बड़े पैसे को अपनी और खींचने के चक्कर में अपना सिक्का दिन रात खोते रहते हैं.
दरअसल उधारी पर ब्याज और बाजार के नित नये मुनाफा तंत्र के चलते उपभोक्ता के साथ साथ जब उत्पादकों के पास भी मुद्रा की सतत कमी रहने लगी तो उसे पूरा करने के लिए वायदा बाजार का तंत्र उदित हुआ और बढ़ते समय के साथ मजबूत भी हुआ. ऊपर से फियट करेंसी के प्रसार से उद्योग और उत्पादन आधारित अर्थव्यवस्था तो धीरे धीरे दम ही तोड़ने लगी. और आज आलम यह है कि वायदा या सट्टा बाज़ार ही वास्तविक बाजार की दशा और दिशा दोनों निर्धारित करता है.
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जिंसों का वायदा बाजार या सट्टा बाजार भारत में कुछ प्रमुख जगहों से शुरू हुआ. जैसे गुड़ और आलू का हापुड़, चने का इंदौर, जीरे का ऊंझा से; जिसमें मुख्या रूप से आढ़ती जींस के बाजार में पहुँचने से पहले ही उसकी खरीद बेच का करार कर लेते थे. यह करार मौखिक या फिर रुक्के लिख कर किया जाता था और स्थानीय बाजार में ही नहीं सभी सम्बद्ध जगहों में इसकी मान्यता होती थी. करार करने वाले व्यपारियों का नाम अल्सर मशहूर होता था और उनके लिखे करार पर हर कोई यकीन कर लेता था और इसीलिए इन रुक्कों पर पैसों का लेन देन भी हो सकता था.
वायदा बाजार के आरम्भ को समझाने के लिए एक उदाहरण देता हूँ. मान लेते हैं एक आलू बोने वाले किसान के पास नकदी की कमी है और वह बीज, खाद, सिंचाई आदि की कीमत नकद चुकता न कर सकने की वजह से आलू की खेती करने में सक्षम नहीं है. ऐसी हालत में वह या तो बैंक के पास जाए या फिर स्थानीय साहूकार के पास, जो उसे उसकी कोई परिसंपत्ति गिरवी रखकर ऋण दे दे. लेकिन वायदा बाजार की व्यवस्था में वह मंडी के आढ़ती के पास जा सकता है जो कि उसकी भविष्य में आने वाली फसल को खरीदने का लिखित वायदा करके उसे नकद पैसे दे देगा. इस लिखित वायदे को ही सट्टा या करार कहा गया. अब इस सौदे में कीमत वर्तमान समय में, दोनों पक्षों की सहमति से ही तय की जायेगी और सौदे के मुनाफे या नुकसान का जोखिम दोनों पक्ष उठाएंगे. जैसे कि यदि कीमत 2000 प्रति टन तय हुई है तो किसान को अपने अनुमानित उत्पादन के हिसाब से वायदा करना होगा की नियत समय पर वह एक निश्चित मात्रा के बराबर आलू आढ़ती को उपलब्ध कराएगा.
फसल बर्बाद होने या उत्पादन कम होने की सूरत में किसान को उस समय चल रही कीमत दर के हिसाब से करार में लिखी गयीआलू की मात्रा की पूरी कीमत आढ़ती को देनी होगी. दूसरी तरफ यदि फसल अच्छी हुयी और मंदी में फसल की आवक बढ गई और आलू का भाव मंडी में गिर गया तो व्यापारी को नुकसान होगा क्योंकि वह तो किसान को पहले ही अधिक दर से भुगतान कर चुका है.
जब यह व्यवस्था चल पड़ी तो इसका मंडियों में अधिकाधिक उपयोग किया जाने लगा क्योंकि फियट करेंसी से संचालित अर्थव्यवस्था की वजह से किसानों के पास ही नहीं बल्कि औद्योगिक उत्पादकों के पास भी हमेशा करेंसी की कमी रहने लगी थी. औद्योगिक उत्पादक तो जब कभी कैश फ्लो ठीक होता तब भी अपना उत्पादन बढ़ाने के लिए या भावों के उतार चढ़ाव को संतुलित करने के लिए इस व्यवस्था का प्रयोग करने लगे थे. इस प्रकार वायदा बाजार निरंतर फैलता गया और सभी प्रमुख धातुयें, खनिज तेल और बहुमूल्य धातुयें भी इसकी लपेट में आ गयीं. आज सभी प्रमुख उत्पादक वायदा बाजार में कीमतें गिरने पर अपनी सलाना जरूरत का करार खरीद लेते हैं और बढ़ी कीमत पर कैश सेटलमेंट करके मुनाफा काट लेते हैं. यही काम शेयर बाजार के लम्बी अवधि के निवेशक भी करते हैं जिससे शेयर्स में उनके लगाये गए पैसे सुरक्षित रहते हैं. आम निवेशकों को चूँकि बाजार के भावों के उतार चढ़ाव को विश्लेषित कर पाने की तकनीक नहीं पता होती और न ही वे इतना समय लगा पाते हैं इसलिए वे अपने लिए ऐसा कोई सुरक्षा कवच नहीं बना पाते. नतीजा कम पैसे वाला गोते खाता है और अधिक पैसे वाला उसका उसका धन बड़ी सफाई से साफ कर जाता है.
यहाँ यह जरूर ध्यान रखिये कि ट्रेडिंग कोई उत्पादन क्रिया नहीं बल्कि इस हाथ का पैसा दूसरे हाथ में पहुंचाने का उपक्रम ही है.
जिंसों का वायदा बाजार पहले लन्दन और फिर शिकागो में फूला फैला और जापान में भी लगभग उसी के साथ साथ; फिर वहाँ से दुनिया के हर कोने में. भारत में भी इसकी शुरुआत अंग्रेजों के समय से ही रही लेकिन संस्थागत शुरुआत 2003में हुयी.

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चलते-चलते एक दिलचस्प वाकया बयान करता चलूँ जिससे आपको अंतिम रूप से आपको कम पैसे वालों और अधिक पैसे वालों का एक मनोविज्ञान भी समझ आ जाय और साथ में यह भी कि बाजार में बहुसंख्यक लोग किस तरह भोलूभाई ट्यूबलाइट ही साबित होते हैं.
बात शीत युद्ध के उन दिनों की है अमेरिका के इटली और तुर्की में अपने बैलिस्टिक मिसाईल लगाने के जवाब में रूस ने क्यूबा में जवाबी मिसाईल तैनात करने का निर्णय लिया और दोनों देशों में परमाणु युद्ध की सम्भावना बन गयी. पूरी दुनिया पर १३ दिनों तक संकट के बादल मंडराते रहे और अमेरिकी शेयर बाजार बुरी तरह लुढ़कने लगा. आम निवेशक गिरते भावों से आतंकित होकर अपना शेयर फटाफट बेचने लगे और नामी कंपनियों तक के भाव जमीन पर आ गए. सभी यह सोच रहे थे कि युद्ध की स्थिति में अमरीका के व्यापार की बर्बादी निश्चित है. लेकिन यहीं पर दूसरी तरफ एक अल्पसंख्यक वर्ग ऐसा था जो यह जानता था कि युद्ध होगा नहीं क्योंकि ऐसी बर्बादी आखिरकार न रूस के हक में होगी और अमेरिका के.
और अंत में हुआ भी वही राष्ट्रपति केनेडी और रूस के बीच गुप्त राजनयिक समझौता हुआ और अमेरिका ने इटली और तुर्की से अपनी मिसायिलें हटाने का निर्णय लिया, और रूस ने क्यूबा में मिसाईलें लगानेका निर्णय निरस्त किया. जैसे ही खबर फैली बाजार और व्यापार पर इसका असर चौंकाने वाला था. चार दिन के भीतर ही भाव वापस पुरानी स्थिति में लौट आये और जिन लोगों से डरे हुए निवेशकों से मिटटी के भाव शेयर खरीदे थे उन्होंने उसे सोने के भाव बेचा और आखिरकार कम पैसे वालों का नुकसान अधिक पैसे वालों पर मुनाफा बनकर बरसा.
तब से अब तक दुनिया में सैकड़ों ऐसे उदाहरण मौजूद हैं लेकिन फिर भी लाखों की संख्या में भोलूभाई के बिरादर आज भी अपनी-अपनी अठन्नियाँ लिए सेठ की तिजोरी के पास सटे खड़े हैं, की शायद सेठ का रूपया उनकी अठन्नी से खिंचा चला आये. 

Sunday, March 5, 2017

बैंकिंग का उदय: दुनिया के सबसे बड़े आर्थिक घोटाले की कहानी !

सौ लुहार की, एक सुनार की 

दरअसल अर्थव्यवस्था धनबल से नहीं, ऋण बल से चलती है. ऋण ही मुद्रा के भी उद्भव, चलन और विकास का आधार है. वस्तुओं और सेवाओं के विनिमय के दौरान, किसी भी कारण से बदले में बराबर मूल्य की वस्तु न उपलब्ध करा पाने से ऋण की अवधारणा का जन्म हुआ. जाहिर है, मुद्रा के न होने पर सभी वस्तुओं और सेवाओं का बदला किन्हीं और वस्तुओं और सेवाओं से चुकाया जाता था और उनके परस्पर मूल्य, एक दूसरे के सापेक्ष, समाज में उनकी तात्कालिक आवश्यकता और उपलब्धि के आधार पर तय होते थे, सर्वमान्य होते थे, और इनका  हिसाब किताब भी याददाश्त के आधार पर जबानी तौर पर रखा जाता था.

पिछले लेख  से आपको याद होगा कि कैसे एक ऐसे ही समाज में  एक घुड़सवार ने घुसपैठ कर ली और अपनी चालबाजी से, लोगों को गुलाम और कर्जदार बनाते हुए, अपना साम्राज्य कायम कर लिया था. उसके बाद समाज में स्वतंत्र मानवीय गतिविधियों पर नियंत्रण होने लगा था, मनुष्य कम होने लगे थे, मजदूर बढ़ने लगे थे, मुद्रा के संग्रह की भी होड़ लगने लगी थी क्योंकि हर किसी को साल के अंत में,  ली हुयी मुद्रा से अधिक मुद्रा लौटानी थी. जाहिर है इसको लेकर लोगों में असुरक्षा भी पनपने लगी थी.  इसी वजह से, लेन-देन में उत्पन्न हुए  कर्ज के निपटान और सुरक्षा तथा समृद्धि पाने के लिए प्रतिस्पर्धा और लड़ाईयां भी शुरू हो चुकी थीं. मुद्रा के बदले श्रम, वस्तुओं और सुविधाओं की बिक्री के आरम्भ के साथ अर्थव्यवस्था का जन्म हो चुका था और ऋण उसकी मुख्य चालक शक्ति के रूप में अपने को जनमानस में स्थापित कर चुका था

इस तरह जब विनिमय में सुविधा के बहाने या फिर  सच कहिये तो विनिमय से उत्पन्न कर्ज को पाटने-पटाने के लिए मुद्रा का प्रयोग चल पड़ा तो तरह-तरह की मुद्रा बनने लगी. देखा देखी   अधिनायकों और शासकों द्वारा  हर उस चीज को मुद्रा की प्रयोग करने की कोशिश की गयी  जिस  पर लोगों का विश्वास जमता दिखाई देता कि  उसके बदले बाद में जीवनोपयोगी वस्तुयेन हासिल की जा सकती हैं. आखिरकार राज्य के हस्तक्षेप और सार्वजनिक सुविधा, विश्वास और सहमति से बात मूल्यवान  धातुओं जैसे सोना और चांदी पर आकर ठहर गयी.  हमारी दूसरी कहानी यहीं से शुरू होती है--एक सुनार की कहानी, कि कैसे पारंपरिक कहावत के उलट एक सुनार सौ लुहारों पर भारी पड़ा और यही नहीं बल्कि उत्पादन और विनिमय के सभी प्रचलित समीकरणों को झुठलाते हुए उनके श्रम, उत्पादन और जीवन को अपने कब्जे में कर बैठा. सुनार का यह कब्जा आज भी जमा हुआ है, उसे कोई भी विचारधारा, कोई भी आन्दोलन या क्रांति डिगा नहीं सकी और आज तो वह व्यापारों पर ही नहीं सरकारों पर भी हावी है.

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तो हुआ यों कि उसी दुनिया में एक सुनार रहता था जो एक निश्चित नाप और शुद्धता के सोने के सिक्के ढालता था और वस्तुओं और सेवाओं को खरीदने के बदले उन्हें लोगों में चलाता था. उसके पास सोना रखने की एक बड़ी तिजोरी भी थी. अब चूँकि समाज में अधिक मुद्रा संग्रह करने की होड़ लगी ही रहती थी, नतीजतन चोरी जैसे अपराध भी होने लगे थे. इसलिए जिन्होंने भी अधिक मुद्राएं संग्रह कर ली थीं उनके सामने उन्हें सुरक्षित रखने का प्रश्न भी आ खड़ा हुआ था. ऐसे ही कुछ लोगों ने से सुनार के सामने प्रस्ताव रखा कि  वह उनकी संग्रह की हुई मुद्राएं अपने पास जमा कर ले और जब जरूरत उन्हें होगी उसे वे वापस ले जायेंगे. सुनार ने  यह सेवा देना स्वीकार किया और बदले में मामूली किराये की मांग की  जिसे लोगों ने भी स्वीकार कर लिया और यह परिपाटी चल पड़ी. धीरे-धीरे अधिक से अधिक लोग सुनार पर विश्वास करने लग गए और उसी अनुपात में  उसके पास अपनी मुद्राएं सुरक्षित रखने लग गए. वह जमा की गयी सोने की मुद्राओं के बदले उन्हें रसीदें दे देता जिसे बाद में दिखाकर वे अपना सोना वापस पा सकते थे. सुनार इस प्रकार सभ्यता का पहला बैंकर बन गया और उसकी तिजोरी सभ्यता का पहला बैंक.

कुछ दिन इस प्रकार चलता रहा और उसकी तिजोरी भरती गयी और उसी के साथ साथ वह अधिक से अधिक लोगों का विश्वास जीतता चला गया. जब यह सब चल ही रहा था उसी दौरान  सुनार ने कुछ बातें  नोट की :-
१. लोगों की जमा दर में लगातार बढ़ोत्तरी हुयी जबकि सोने की निकासी की दर लगातार घटी.   
२. कुछ लोग सोना वापस निकलने के लिए आये लेकिन सभी लोग एक साथ कभी भी निकासी के लिए नहीं आये.
जब उसने गौर किया तो पाया कि बाहर बाजार में लोग असली सोने के सिक्कों के बदले उसकी दी हुयी रसीदें ही वस्तुएं खरीदने के लिए इस्तेमाल करने लग गये थे,  और लेने वाले बेहिचक उन्हें ले भी रहे  थे क्योंकि उन्हें पता था कि जब वे चाहेंगे सुनार के पास जाकर रसीदों के बदले ये सिक्के तो उन्हें मिल ही जायेंगे. और यहीं नहीं कागज की रसीदें लाने, ले जाने और रखने में सोने के सिक्कों की अपेक्षा कम वजनी और सुविधाजनक भी थीं.

इसी बीच लोगों में कर्ज बढ़ने लगा था. यह कर्ज वस्तु या सेवाओं के विनिमय से उत्पन्न कर्ज (जिसे आज हम बिल कहते हैं) न होकर के लेन देन में निपटान में देरी की वजह से लागू ब्याज की वजह से था. ब्याज की अवधारणा अब सर्वव्यापी हो चुकी थी, और अपनी स्वतंत्रता और संपत्ति खो चुके वर्गों में कर्ज पहले आवश्यकता और बाद में फैशन भी बन गया था.

अब सुनार ने इन स्थितियों का फायदा उठाने की योजना बनायीं. उसने अपने सोने के सिक्के बिलकुल पिछली कहानी के घुड़सवार की तरह ब्याज पर उधार देने शुरू कर दिए, लेकिन कुछ समय बाद उसने पाया कि लोग कागज की रसीदों को इस्तेमाल करने के इतने आदी  हो चुके हैं कि वे सोने के सिक्के लेने की बजाय  उससे कहते कि  “भाई हमें तो सिर्फ रसीद लिख कर दे दो उसी से हमारा काम चल जायेगा.” फिर सुनार से रसीदें ही देनी शुरू कर दीं और यहीं से उसे एक और बात और सूझी. चूँकि अब लोगों को सोने के सिक्के नहीं सिर्फ रसीदें ही चाहिए थीं तो वह कितनी भी रसीदें लिख कर दे सकता था ! यहाँ तक कि उसके पास लोगों का जो सोना जमा था उसके बदले भी, (भले ही उन पर जमा कर्ताओं को वह पहले ही रसीदें दे चुका हो) और लोगों को यह कभी पता नहीं चल सकता था क्योंकि वे कभी भी एक साथ अपना सोना वापस लेने नहीं आने वाले थे; जिसकी मुख्या वजह थी की अब उन्हें सोने के सिक्कों की जरुरत भी नहीं रह गयी थी और उनका काम रसीदों से चल रहा था.  

अब सुनार अंधाधुंध कर्ज बांटने लगा,  उस पर ब्याज कमाने लगा और पहले से खूब अमीर हो गया. लोगों ने जब उसकी बढ़ती अमीरी देखी तो उन्हें शंका हुयी कि जरूर यह आदमी हमारा सोना खर्च कर अपने लिए ऐशोआराम जुटा रहा है और वे सब उसके पास पहुंचे और अपना-अपना सोना देखने की मांग की. इस पर सुनार पहले तो सकपकाया लेकिन फिर उसने अपनी तिजोरी खोल कर दिखा दी. लोगों ने पाया कि उनका सारा सोना वहां सुरक्षित था, क्योंकि कर्ज पर तो रसीदें ही दी गयी थीं, सोने के सिक्के नहीं.  इससे उनका विश्वास सुनार पर और मजबूत हो गया, क्योंकि यह दरियाफ्त करने का साधन उनके पास नहीं था कि सुनार के पास असल में कुल कितना सोना जमा है  और वह कितनी रसीदें लोगों को दे चुका है. लेकिन यहाँ लोगों ने अपनी समझ के हिसाब से चालाकी दिखाते हुए उससे मांग की कि बेशक उनका सोना सुरक्षित है और वे उसे वापस भी नहीं चाहते लेकिन आखिरकार सुनार उन्हीं जमा सोने के सिक्कों के बदले ही तो अमीर होने का चक्कर चलाये हुए है, इसलिए उन्हें भी इस आमदनी में हिस्सा चाहिए. जाहिर हैं की अब तक जनमानस में मुद्रा, ब्याज और मुनाफे की अवधारणा भली प्रकार विकसित हो चुकी थी.      

सुनार ने ब्याज की कमाई में हिस्सा देना स्वीकार कर लिया, और जितना ब्याज वह लेता था उससे कम करके लोगों को देना मंजूर कर लिया; और यह लोगों को जायज भी लगा और उन्होंने सहमति भी दे दी.  इस तरह से एक बैंकिंग व्यवस्था का सूत्रपात हो गया, और सुनार को और अधिक खुल कर खेलने का मौका मिला. 

इसमें मार्के की बात यह थी कि उसको ब्याज देना तो केवल जमा सोने पर ही पड़ता था लेकिन वह कर्ज में कितनी भी रसीदें काट सकता था क्योंकि उसको रोकने वाला तो कोई था ही नहीं! बस इसी बात का फायदा उठा कर उसने और जोर शोर से कर्ज बांटने शुरू किये क्योंकि लोगों के बीच बढती लालसा और लालच के अलावा सरल गणित के हिसाब से भी वस्तुओं के मुकाबले मुद्रा की कमी सदैव बनी ही रहती और वे रोज रोज कर्ज की मांग करते ही करते. इस तरह कर्ज बढ़ता ही गया, और इसको तरक्की समझा जाने लगा. सुनार का बैंक खूब फूलने और फैलने लगा, सुनार की इजारेदारी समाज के हर क्षेत्र में कायम हो गयी.

लेकिन असल जमा धन और मुद्रा की पुर्जेबाजी में झोल तो था ही और पोल कभी न कभी तो खुलनी ही थी सो खुली. सुनार की अंधाधुंध बढती अमीरी फिर लोगों से हजम नहीं हुयी और वे फिर सुनार के पास पहुंचे और इस बार अपने सोने की मांग की. सामान्य लोगों में कुछ खासे अमीर भी शामिल थे जिन्होंने बहुत बड़ी बड़ी राशियाँ जमा करायी थीं. इस बार सुनार की बिलकुल नहीं चली और उसके पास जो सोना निकला वह उसके द्वारा दी गयी रसीदों का दसवां हिस्सा भी न था. नतीजा यह हुआ की सुनार दिवालिया हो गया.

लेकिन यह इस कहानी का क्लाइमेक्स नहीं है..... असल पिक्चर अभी भी बाकी है...
लेकिन इस बीच लोगों ने बकौल ग़ालिब “कर्ज की मय” पीनी शुरू कर दी थी और उसके नशे में झूमने लगे थे. मतलब कि तकनीक का विस्तार होने लगा था, व्यापार फैलने लगा था. चीन से फारस और रोम तक. उसके बाद युरोप के लोग तरह तरह के समुद्री अभियान में संलग्न हो दुनिया के दूसरे छोरों तक कूच करने लगे थे, वास्तविक उपलब्ध धन के मुकाबले फर्जी करेंसी पर फैलती हुयी  अर्थव्यवस्था का जोर हो चला था और धन के बदले “विश्वास” और “वायदा” नामक तत्वों के बूते बड़े-बड़े आर्थिक खेल होने लगे थे. ऐसे माहौल में जब बहुतायत लोग एक दूसरे से लेन देन के वायदे में फंसे हुए हों और उन्होंने बड़े बड़े काम इसी बूते पर ठान रखे हों तो  व्यवस्था कितनी भी फर्जी हो उससे छुटकारा असंभव होता है.

और हुआ भी यही. एक सुनार दिवालिया जरुर हुआ लेकिन सभी सुनार नहीं हुए. जाहिर है कि इस दुनिया में अकेला वही तो नहीं था और इसकी देखा देखी औरों ने भी यह रास्ता अपनी अपनी बस्ती या शहर में अपनाया था और अमीर बन गए थे. पर हाँ, तो इतना जरूर हुआ कि सुनार के दिवालिया होते ही राजा भी चेत गया और उसने एक आपातकालीन सभा बुलाई. बहुत विचार विमर्श के बाद यही नतीजा निकला कि सुनारों के फैलाये इस जाल से निकलना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है तो क्यों न इस पर्चीबाजी को एक ही व्यवस्था बना दिया  जाए और इसे अर्थव्यवस्था के नाम से जाना जाए !  तय किया गया कि सुनारों को जमा सोने से एक निश्चित अनुपात में ही बढ़ कर रसीदें काटने की अनुमति होगी और उन्हें इस बारे में राज्य को बताना भी होगा. तब से यह व्यवस्था कानूनी जमा पहन कर मान्य हो गयी और सुनारों की कमाई से  राजा को भी टैक्स  के रूप में एक हिस्सा दिया जाने लगा.

इस तरह बैंक नामक संस्था का उदय हुआ और वे वास्तविक वस्तुओं और धन के मुकाबिल  उधार, वायदा, विश्वास जैसे तत्वों से बनी अर्थव्यवस्था के प्रमुख वाहक बन कर खड़े हो सके. अब आगे की बात ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर करेंगे और आपको बताएँगे कि कैसे व्यापारी वर्ग बाकायदा गुट बनाकर राज्य पर हावी हुआ और विश्व के प्रमुख धनिकों ने सरकारों को अपने कब्जे में ले लिया जैसा आज हम अपनी खुली आँखों से देख रहे हैं.   

Thursday, February 23, 2017

बम बम भोले !

शिव ने पार्वती से पूछा- "प्रिये ये मुझको सात पुश्तों का राशन भक्त आज ही क्यों सप्लाई करने पर तुले हैं ?
पार्वती ने शंका निवारण किया- “मनुष्य आपको अर्जेंटली सेट करना चाहता है देव! इन सबके पास अपना कोई न कोई “कारज” है जो कि हमेशा बिगड़ा हुआ रहता है, उसे ये आपसे ठीक करना चाहते हैं. संक्षेप में ये आपको “कारज” का मेकेनिक मानते हैं.
लेकिन पार्वती मैंने ये क्षमताएं प्राप्त करने के लिए वर्षों तक बहुत साधना की है ...मनुष्य लोग मुझसे ये क्यों नहीं सीखते?
उनके पास टाइम नहीं है देव! बिजी लोग हैं, व्यापारी हैं मुनाफा समझते हैं, आपकी तरह फालतू नहीं हैं कि सीखने समझने में लगे रहे..... और आप भी जब पाव भर धतूरे में मान जाते हो तो कोई क्यों ज्यादा इन्वेस्ट करे.
अरे मानता कहाँ हूँ प्रिये ! वही धतूरा वापस कर देता हूँ सबको, देखती नहीं सब के सब वही तो खाए बौराए पड़े हैं.... मुझसे नजरें हटा कर जरा भारत भूमि को देखो तो !

Monday, February 13, 2017

जय वैलेंटाइन !

 अपने महान देश के किसी संत, किसी ऋषि मुनि का नाम बताएं जो स्त्री पुरुष के स्वाभाविक और लौकिक प्रेम के पक्ष में खड़ा हो, और इसके लिए राजा तक से पंगा लिया हो, और सजा भी क़ुबूल की हो. हमारे यहाँ तो राजा के यहाँ जाकर दान मांगने, यज्ञ करने, खुश होकर वरदान देने या फिर मनमुताबिक काम न होते देख श्राप देने का फैशन रहा है और स्त्री पुरुष के सहज प्रेम की कॉल को सीधे ईश्वर की तरफ डाइवर्ट करने का भी. फिर चाहे आपकी कॉल रिसीव हो या न हो. कोई जवाब न मिले तो समझो आपके नेटवर्क में ही खराबी है.
में कहानियों में भटकाने का काम ज्यादा किया गया है. आज भी हमें राधा-कृष्ण, मीरा जैसे आदर्श उदाहरण देकर यही बताया जाता है कि हम वास्तव में तुच्छ हैं और प्रेम को लेकर हमारी सामान्य धारणाएं और अनुभव भी. हमें उन आदर्शों की तरफ लपकने को उकसाया जाता है जिन्हें हम उम्र भी गुजार दें तो नहीं पा सकते, जैसे हमें उकसाने वाले भी उन्हें नहीं पा सके और आखिर में छिपे कैमरों या फिर भारतीय दंड संहिता की गिरफ्त में आ गए.
लन्तरानियों को दर्शन और दर्शन को लंतरानी की तरह पेश करके, महान कहलाये जाने वाले लोग हमारी दिमागी मालिश इस तरह करते रहे हैं कि हम अपने तुच्छता बोध से कभी उबर ही न सकें और अपनी जिंदगी प्रार्थना करने, दया या कृपा मांगने और जय बोलने में खपाते रहें. अब ऐसा मनुष्य जिसे जन्म से ही दीनता और लघुता के ही पम्प से फुलाया गया हो और बड़ा होते ही जीने खाने के लिए प्रतिस्पर्धा के मैदान में ठेल दिया गया हो, प्रेम जैसे अद्भुत अनुभव को कैसे प्राप्त कर सकता है. वह तो नकली कवितायेँ लिखेगा या दूसरों की प्रसंशा के भजन गायेगा.
ईश्वर से प्रेम का बाजार बहुत बड़ा है, ईश्वर से प्रेम करना आसान भी है क्योंकि एक तो आपने उसको देखा नहीं और और दूसरे उससे आपको कोई काम नहीं पडा, कभी कोई लेन-देन नहीं हुआ. अपने पड़ोसी से प्रेम करना मुश्किल है क्योकि उसकी बेहतर जिंदगी आपको मुंह चिढाती है और बदतर जिंदगी कमीनेपन से सनी हुयी अद्भुत ख़ुशी देती है, और ये दोनों अनुभव सीधे-सादे प्रेम से कहीं बेहतर क्वालिटी के होते हैं, लगभग परमानन्द के करीब.
अभी एक और चक्कर है. “असली वाला प्रेम शरीर से नहीं मन होता है, वही अलौकिक है, वही सत्य है, स्थायी है, शरीर से तो केवल वासना की अभिव्यक्ति होती है”---जैसा पुराण बांचते बांचते हम दिन रात भ्रम के महासमुद्र में गोते लगाते रहते हैं और शरीर की नश्वरता से प्रेम को नश्वरता को जोड़ते घटाते अपनी जिंदगी हलाकान किये रहते हैं. इससे बचने का एक मात्र उपाय यही है कि तत्काल शरीर त्याग कर, आत्मा की अवस्था प्राप्त कर ली जाए. पर मेरे जैसे आदमी के लिए न तो यह अभीष्ट है और न संभव क्योंकि आत्मा जैसी भी हो इस शरीर की ही किरायेदार है. अगर शुद्ध आत्मिक प्रेम भी कभी कुलबुलाये तो उसकी अभिव्यक्ति शरीर के बिना कम से कम मैं तो नही कर सकता, अपनी आप जानें.
संत वैलेंटाइन को याद करने और उनकी याद में प्रेमोत्सव मनाने में मुझे सार्थकता लगती है क्योंकि वे ऐसे संत लगते हैं जो शतप्रतिशत मनुष्य थे और मनुष्य की सहज इच्छाओं का सम्मान करने के लिए अपने जमाने के राजा के विरुद्ध जाने का साहस कर दिखाया, उन्हें जंगल में बुलाकर उपदेश नहीं पिलाया.
बाकी रही बाजार की बात, तो बाजार हर उस चीज को गोद लेने के लिए लपकता है जिसकी स्वीकार्यता लोगों में बढती दिखती है, और यह पूरी तरह आपकी मर्जी है की आप उसकी गोद में बैठें या न बैठें.

Saturday, February 11, 2017

प्यार में बाजार

चारों तरफ प्रेम का परनाला बह रह रहा हैं---सोशल मीडिया में, रेडियो-टेलीविजन में, अखबारों में. युवाओं को फ़िल्मी गानों के माध्यम से प्रेम करने के लिए उकसाया जा रहा है, जिससे कहीं वे इस पचड़े में पड़े बिना ही 14 फरवरी न निकाल दें.
इस सबका वास्तव में वाजिब असर भी हुआ है, और इतना हुआ है कि वे अब जाग गए हैं और लगता है कि प्रेम करके ही मानेंगे और वह भी पूरे विधिविधान से. जो नौजवान अभी भी इस हल्ले में नहीं आ पा रहे हैं वे दूसरी तरफ जाकर “सस्कृति” नामक भैंस दुहने में लग गए हैं. वे इस बात से भी रुष्ट हैं कि बाजार उनके प्रतीकों जैसे लाठी, त्रिशूल और परदे को वैलेंटाइन वीक के आयोजनों में सही जगह नहीं देता. इसलिए वे प्रेमियों के साथ वही सुलूक करने में लग जाते हैं जो आज के लगभग १८०० साल पहले सेंट वैलेंटाइन के साथ तत्कालीन रोमन सम्राट ने किया था--यानी पिटाई.
बाजार की मार्फ़त ही पता चला है कि प्रेम करना और उसे जाहिर करना खासा खर्चे वाला काम है और यह सात दिन में स्टेप-बाई-स्टेप ही किया जा सकता है. गुलाब, चॉकलेट, टेडी और अन्य उपहारों के जोर से आप प्रस्ताव को गौर करने लायक बनाते हैं और फिर स्वीकृत हो जाने पर ‘हग’ या ‘किस’ करते हैं तब कहीं जाकर मामला जमता है, और प्रेम, जो अब तक शायद कहीं अटका हुआ था, अचानक हो बैठता है और बात आगे बढती है. अगर ये सब आपकी हैसियत के बाहर बैठता है तो आप और चाहे जो कर सकते हों, प्रेम तो बिलकुल नहीं कर सकते.
मगर इतना कर सकने की हैसियत के साथ आप चाहें तो “मेरी जां, जाने जिगर, इकरार, बेकरार, प्यार, यार, दिलदार, बहार, चन्ना जैसे बीस तीस शब्द जो बार-बार अलग अलग फ़िल्मी गानों में आकर आपको बचपन से परेशान करते रहे हैं उनको आपस में लपेट कर, कुछ कविता या शायरी टाइप के एक नये टॉप-अप वाउचर से अपने प्रेम की रिचार्ज वैल्यू बढ़ा सकते हैं.
यकीन न हो तो अपने यार/दिलदार से प्यार और पैसा में से किसी एक को चुनने को कहिये तो वह निश्चित रूप से आपको ही छोड़ देगा/देगी क्योंकि प्यार और पैसा आपस में कुछ इस तरह गुत्थम गुत्था हैं कि समझ में नहीं आता कि भला उनमें कुश्ती हो रही है या प्यार. हालाँकि दोनों में ख़ास फर्क भी नहीं है.
और ऐसा क्यों न हो? आखिर इसी काम के लिए और इसी मौसम में, अमेरिका में २० अरब डॉलर और इंग्लॅण्ड में डेढ़ अरब पौंड और इससे कुछ ही कम फ़्रांस में प्रेमी जन हर साल फरवरी में खर्च करते हैं तो हम क्यों पीछे रह जाएँ ?
वैसे बड़े धीरज का काम है कि अगर आप को प्यार हो जाए और आप उसके इजहार के लिए फरवरी का इंतज़ार करें... कम से कम ये मुझ जैसे नकारा आदमी के बस की बात तो नहीं.

Friday, January 27, 2017

मुक्त बाजार से मुक्ति--3: उनका पिरामिड उलट दीजिये

दुनिया भर के समाजशास्त्रीय और अर्थशास्त्रीय सिद्धांतों को धूल चटा जाईये और सिर्फ यह सोचिये कि आप अपने लिए कैसी जिंदगी चाहते हैं और अपने लिए कैसी दुनिया ? करेंसी और बैंकिंग के जिस स्कैम ने आज हमें और आपको घेर रखा है और हमारी जिंदगियों को सुविधा पूर्ण बनाने के नाम पर वह हमारी साँसों तक को जिस तरह डिक्टेट कर रहा है, क्या वह आपको पसंद आ रहा है ? क्या आप स्वतंत्र हैं ? अपनी मर्जी की जी पा रहे हैं या फिर दिन रात मेहनत करके, बदले में मिली करेंसी से अपनी जरूरत और विलासिता के लिए चीजें जुटाने वाली एक मशीन बन चुके हैं ? असलियत यह है कि आप और हम उनके बनाये हुए सिस्टम में फिट होकर उत्पादन और उपभोग के चक्करदार क्रम में निरंतर घिसते हुए पुर्जे से ज्यादा हैसियत नहीं रखते !
मनोवैज्ञानिक अब्राहम मैसलो ने मनुष्य की जरूरतों का एक पिरामिड बनाया और हमें बताया कि पिरामिड में नीचे से शुरू करके ऊपर की ओर जाते हुए एक एक करके मनुष्य की जरूरतें पूरी होंने पर ही मनुष्य पूर्णता को प्राप्त होता है और उसे उच्च मानवीय मूल्यों के दर्शन होते हैं. चित्र में दिए पिरामिड को ध्यान से देखिये आप खुद-ब-खुद समझ जायेंगे. मोटे तौर पर मैस्लोवेँयन पिरामिड ऑफ़ नीड्स के अनुसार यदि आपकी शारीरिक जरूरतें जैसे--सांस, भोजन, सेक्स और सुरक्षा--नहीं पूरी हुयी हैं तो आप जीवन में उच्च्चतर मूल्यों जैसे प्यार, आत्मसम्मान, ज्ञान और स्वतंत्रता की सोच भी नहीं सकते !
अब जरा सोचिये अगर ऐसा ही होता तो अभाव और गरीबी में जीने वाला कोई भी कभी किसी उच्चतर अनुभव को प्राप्त ही नहीं हो सकता था. कबीर और रैदास तो होते ही नहीं, भारत ही क्या दुनिया के हर कोने से भयंकर गरीबी और संघर्ष झेलकर और उसी में पलकर, सैकड़ों साहित्यिक, अध्यात्मिक, वैज्ञानिक और खेल जगत की प्रतिभाओं ने जन्म लिया और उभरीं ही नहीं बल्कि अपनी अपनी जगह से अब्राहम मैसलो के इस सिद्धान्त को मुंह चिढा रही हैं....
लेकिन आज भी अमेरिका के पांच-पांच विश्वविद्यालयों में दंड पेल चुके मनोविज्ञान के इस प्रकांड पट्ठे की “Maslow's hierarchy of needs” बाकायदा दुनिया भर में रेफर की जाती है और छात्रों को पढाई जाती है.
अब यह ब्लॉग पोस्ट जिस बात से शुरू हुयी थी उसे इस सिद्धांत में मिलाते हुए इसकी बखिया उधेड़ेंगे और जरा समझेंगे कि इसे कैसे वे लोग अपने हक़ में इस्तेमाल करते हैं और फिर इसी को पकड़ कर हम दूसरे सिरे से कैसे अपने हक़ में इस्तेमाल कर सकते हैं ........वापस पाने के लिए अपना जीवन, अपनी स्वतंत्रता और ख़ुशी .......
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अब्राहम मैसलो का पिरामिड एक सिद्धांत हो या हायीपोथेसिस-- इसको कोई भी नाम दे लीजिये सिर्फ एक रेफेरेंस पॉइंट है, जिससे हम चीजों को समझना शुरू करते हैं और हमारे बाजारू शोषक हमें समझाना. कल की पोस्ट के कमेन्ट में सरफराज अनवर ने मैस्लोवियन पिरामिड को चुनौती देने वाले कबीर, रैदास आदि की सफलता को समझने के लिए, black swan phenomenon को समझने की सलाह दी.
दरअसल black swan phenomenon भी एक तरह का पोंगा सिद्धांत है जिसे स्टॉक ट्रेडर नसीम निकोलस तालिब ने 2008 की अमरीकन तबाही और उसके पीछे अमरीकी फाइनेंसियल सर्विस कंपनियों की धोखेबाजी को छिपाने के लिए गढ़ा. निकोलस ने रोबोटिक ट्रेडिंग के लिए कम्प्यूटर मॉडल बनाने में जिंदगी भर लगे रहे फिर भी न तो जिम्बावे के हाइपर इन्फ्लेशन और न ही 2008 के अमरीकी मेल्ट डाउन को ही समझ पाए थे इसलिए उन्होंने ये नयी थ्योरी पकड़ा दी. इसके अनुसार “black swan is an event or occurrence that deviates beyond what is normally expected of a situation and is extremely difficult to predict.” जब कि कोई भी घटना बिना कारण नहीं होती और न ही नियम का अपवाद होती है, उसके बीज सदा पिछली परिस्थितियों में छिपे होते हैं जिन्हें देखने समझने के लिए कम्प्यूटर की मशीनी इंटेलिजेंस नहीं मानवीय समझ की जरूरत पड़ती है.
फिलहाल मेरा मानना है कि सभी बेईमान और ईमानदार विद्वानों के सारे सिद्धांत जीवन से ही प्रतिपादित होते हैं और जीवन उनके आधार पर नहीं चलता. मनुष्य लगातार स्थापित सत्य को चनौती देता रहता है और नए सत्य की रचना करता रहता है.
अब मस्लोवियन पिरामिड को उलटने की बात करते हैं और उस प्रश्न से अपनी बात शुरू करते हैं जो कल की पोस्ट के आरम्भ में की गयी थी.
आप कैसा जीवन चाहते हैं और वैसा जीवन जीते हुए कैसी दुनिया आने वाली पीढ़ी के लिए छोड़ कर जाना चाहते हैं? कहीं आप अपनी आनंद और संतुष्टि की खोज में जीवन के मूलभूत अधारों को ही तो नहीं नष्ट कर रहे? पृथ्वी नामक ग्रह और उसके संसाधनों का, जिनका उपयोग करते हुए आप बन्दर से आदमी बन गए अभी भी बंदरों की तरह ही क्यों उपयोग कर रहे हैं? यह समय है टटोलने का कि कहीं एक अदद पूँछ अभी भी तो आपके पीछे नहीं चिपकी रह गयी, जो आपको हर चीज की अंधी नक़ल करने के लिए उकसा रही है ?
मैस्लोवेयन पिरामिड को उलटी तरफ से लागू करना शुरू कीजिये, सभ्यता का व्याकरण बदल जायेगा और जीवन का भी, हाँ लेकिन उसके पहले अपने पीछे चिपकी हुयी पूंछ हटानी होगी. अगली पोस्ट तक सोचिये कि कैसे हटायेंगे?
कबीर रैदास और दुनिया के हजारो साधारण लोग जो जीवन में ऊच्च्तर अनुभवों को जीते आये हैं उन्होंने ऐसा ही किया है और आज भी करते हैं.
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अगर जीवन का एकमात्र उद्देश्य मैटेरिअल कम्फर्ट यानि सुविधा भोग ही करना है तो आज औसतन पचास-साठ हजार महीना कमाने वाले जितनी सुविधा भोग पा रहे हैं, उतनी दो सौ साल पहले इंग्लॅण्ड के राजपरिवार को भी नसीब नहीं थी. जरा सोचिये कि तमाम भौतिक सुखों से लैस होने के बावजूद भी दुःख और खालीपन का रोना क्यों रोते हैं लोग? क्या जीवन स्तर (quality of life=the standard of health, comfort, and happiness) सिर्फ वस्तुओं और उपभोग से निर्धारित होता है? अगर ऐसा होता तो वातानुकूलित कमरे में नरम गद्दे पर लेटे हुए मनुष्य सर्वाधिक उल्लास का अनुभव कर सकता. लेकिन ऐसा होता नहीं है, तो जाहिर है कुछ अन्य तत्त्व भी हैं जो हमारे जीवन की सार्थकता और ख़ुशी के वाहक हैं.
जीवन में सार्थकता और ख़ुशी का अनुभव करवाने वाले तत्त्व हर व्यक्ति के लिए नितांत निजी और अलग-अलग होते हैं जो उस व्यक्ति के अपने जीवन की विकास यात्रा के हिसाब से स्वतः निर्धारित होते चलते हैं. आपने अपना जीवन किस मानसिक और भौतिक मुकाम से शुरू हुआ और आप उसे किधर लेकर चल रहे हैं, आपको होने वाले अच्छे बुरे अनुभव इसी पर निर्भर करेंगे.
सुख और दुःख का अनुभव जीवन में एकंतारिक है (एक के बाद ही दूसरे का आना) और अनिवार्य भी; ( अन्यथा एक के बिना दूसरे की पहचान भी कैसे होगी?) जो अपनी इस चक्रीय व्यवस्था से जीवन को समृद्ध निरंतर समृद्ध करता चलता है. अपने प्राकृतिक और सामाजिक परिवेश में स्वतंत्र, स्वस्थ्य, सौहार्दपूर्ण साहचर्य के साथ यह समृद्धि पाना और उसे बांटना ही जीवन का पूर्णकाम होना है.
स्वतंत्रता भी एक सापेक्ष स्थिति है. किसी व्यक्ति, कुनबे, कबीले या राज्य की स्वतंत्रता तभी तक कायम रह सकती है जब तक कि वह किसी दूसरे व्यक्ति, कुनबे, कबीले या राज्य की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप न करे. इसलिए अपनी स्वतंत्रता बनाये रखने के लिए दूसरे की स्वतन्त्रता को बनाये और बचाए रखना भी उतना ही जरूरी है. प्रकृति से प्राप्त जीवन के साथ प्रकृति का सामंजस्य बनाये रखने की हमारी जिम्मेदारी भी इसी श्रेणी में आती है.
प्रकृति की स्वतंत्रता में जितना हस्तक्षेप मनुष्य करेगा, प्रकृति भी उसकी स्वतन्त्रता में उतना ही हस्तक्षेप करेगी और यह लड़ाई मनुष्य जीत नहीं सकता क्योंकि वह रचनाकार (creator) नहीं है मात्र अनुगामी है. ध्यान दीजिये हमारा हर आविष्कार आज भी किसी न किसी प्राकृतिक रचना से ही प्रेरित है और निरंतर विकसित होते विज्ञान ने अब तक सिर्फ प्राकृतिक घटनाओं को समझने का ही काम किया है; किसी नयी परिघटना को जन्म नहीं दिया.
इस संक्षिप्त और प्रवचन जैसे लगने वाले वक्तव्य को हजम करने के बाद ज़रा वर्तमान की ओर लौटिये और प्रकृति का ही एक उदहारण देखिये--
मधुमक्खी जिस फूल से रस लेती है उस फूल को कोई नुक्सान नहीं पहुंचाती, उलटे फूलों के पराग की वाहक बनती है जिससे उस पौधे की संतति बढती है. वापस वह शहद बनाती है लेकिन अपनी निजी आवश्यकता से बहुत ज्यादा, इतना कि वह मनुष्य के लिए भी उपलब्ध होता है. संक्षेप में जितना वह प्रकृति से लेती है उससे अधिक देती है और साथ में प्रकृति का काम भी करती है. मनुष्य को मधुमक्खी से कुछ सीखना चाहिए.
तो वापस मैस्लोवेयन पिरामिड की तरफ आईये, उसे पकड़ कर उलट दीजिये और उस पर मधुमक्खी की तरह बैठ कर अपना छत्ता बुनिए, आपका जीवन अधिक ठंडा, मीठा और सुखदायी होगा.
हाँ लेकिन आज के समय में, इसके साथ ही आपको अपने चारों तरफ अपनी स्वतंत्रता के विरुद्ध चल रही साजिशों से सावधान रहना होगा, उसका प्रतिरोध भी करना होगा और जाहिर है इसमें कुछ collateral damage तो होगा ही.
अब इसके बाद विरोध की शैली और उसकी राजनीति की बात करेंगे नयी श्रंखला में

Saturday, January 21, 2017

एक राष्ट्र का फर्जी पति

अमेरिका में प्रेसिडेंट का चुनाव सिर्फ तमाशा है ,,, चुनाव के दौरान तामाशा और उसके बाद भी तमाशा ही होता है .... आज से नहीं कई दशकों से.
छुटके जार्ज बुश के दौरान फ्लोरिडा में हुयी चुनाव की धांधली के विरोध में तो शपथ ग्रहण के लिए जाते हुए उनका रास्ता तक जाम कर दिया गया था. ट्रम्प के खिलाफ सड़कों पर उतरे लोगों का तमाशा उसी क्रम में समझा जाना चाहिए, जिसका न कोई असर है, न परिणाम. आम अमरीकी की वहां के लोकतंत्र में कोई भागीदारी नहीं है. यह सब फेडेरल रिजर्व पर हावी बैंकरों और वाल स्ट्रीट के कारिंदों का खेल है जिसे वे ही दोनों तरफ से खेल रहे हैं. जिसको वे चाहे कान पकड़कर आगे ले आते हैं और अमरीका वालों से बोलते है देखो ये रहा तुम्हारा प्रेसिडेंट- अब इसी से चार साल काम चलाओ.
देश के लिए सभी आर्थिक निर्णयों को प्रभावित करने वाले पदों पर भूतपूर्व बैंकर ही नियुक्त होते आये हैं और यह नियुक्ति प्रेसिडेंट ही करता रहा है. रूसवेल्ट के बाद सभी राष्ट्रपति बैंकरों और कंपनियों के हाथ के खिलौने ही साबित हुए हैं और जिसने भी अलग हटने की कोशिश की उसे केनेडी की आसानी से हटा दिया गया.
2007-2008 की आर्थिक तबाही और करदाताओं के 600 बिलियन डॉलर की बेल आउट मनी को सोख लेने के बाद ओबामा को गमले में बाकायदा रोपा गया क्योंकि बुश के ज़माने से संचित जनाक्रोश को शांत करने के लिए यह स्क्रिप्ट की मांग थी. और वैसे भी जनता जुटे खाकर थक चुकी थी और प्याज खाने की मांग कर रही थी. यानी यह पारी वैसे भी किसी डेमोक्रेट को दी जानी थी. रियल एस्टेट स्कैम में सबसे ज्यादा अश्वेत गरीब और निम्न मध्यवर्ग तबाह हुआ था और उनका गुस्सा सातवें आसमान पर था इसलिए ओबामा की शक्ल में उनको एक उम्मीद परोसी गयी अपने आठ सालों के कार्यकाल में ओबामा ने उनके लिए क्या किया, अगर आपको पता हो तो बताएं.
अब रेपब्लिकन चाहिए था लेकिन लोगों में आक्रोश कायम था इस लिए खेल दूसरा खेला गया. अब कोई ऐसा चेहरा चाहिए था जो थोडा excitement बनाये और मूल विषयों से ध्यान भटकाए, इसलिए ट्रम्प को वास्तव में सिर्फ जनता को इधर उधर हिलाने डुलाने और भ्रमित करने का अजेंडा देकर कुर्सी सौंपी गयी है. ऊंची ऊंची और आलतू फालतू बातों से यह जोकर सिर्फ जनता को बहलायेगा किसी घटिया फिल्म के प्लाट की लाइन पर. न मेक्सिको की सीमा पर दीवार बनेगी और न अमरीकी आउटसोर्सिंग कम होगी. ये सब नारे थे जिनकी आड़ में जनता को ठगा गया. जब तक अमरीका के बाहर सस्ती दर पर मजदूर मिलते रहेंगे, अमरीकी इलेक्ट्रोनिक्स कंपनियों के सामान ताईवान और चीन में बनेगे और कपडे भारत, बांग्लादेश, पकिस्तान और चीन में सिले जायेंगे. यही नहीं भारत पाकिस्तान और बंगलादेशी छोकरे छोकरियाँ मुंह में पेन्सिल रख कर अमरीकी एक्सेंट में अंग्रेजी बोलने का अभ्यास करते हुए, यहाँ के कॉल सेंटर्स को भी आबाद रखेंगे. रूस को अपना दुश्मन घोषित करना दरअसल वह चाल है जिसकी आड़ में बाकी जुमले दबा दिए जायेंगे या दब जायेंगे.
ट्रम्प को लाने के लिए सबसे पहले एक बढ़िया मनोवैज्ञानिक मार्केटिंग टूल का भी इस्तेमाल किया गया जिसको मैं maximum visibility and high recall imprint on target memory कहता हूँ और मैंने खुद इसका इस्तेमाल अपने एडवरटाइजिंग केरियर में किया है. इसमें किसी भी की तरह से प्रोडक्ट का नाम और छाप पब्लिक विज़न में बनाये रखा जाता है चाहे इसके लिए किसी विवाद का ही सहारा लेना पड़े. इसमें प्रोडक्ट की ब्रांड इमेज की परवाह न करते हुए सिर्फ उसका नाम अधिकतम बार रिपीट करना या करवाना होता है. ब्रांड इमेज बाद के ट्रीटमेंट से सुधार ली जाती है.
अमेरिका के चुनाव में भी ट्रम्प से कई विवादित बयान दिलवा कर यही किया गया और हिलेरी के समर्थक उसके शिकार हो गए. हुआ यह कि विवादित बयान देने से ट्रम्प का नाम हिलेरी से ज्यादा खबरों में बना रहा और जवाब में उसके विरोधियों ने भी उस पर व्यक्तिगत प्रहार कर के उसी का नाम अधिकतम बार प्रसारित होने में मदद की और ट्रम्प को मैक्सिमम विजिबिलिटी बेनिफिट दिलाई. लेकिन जब यह तकनीक वोट्स को मोड़ने में कामयाब नहीं हुयी तो फिर वह आखिरी जुगाड़ अपनाया गया जो 1824 से अबतक पांच बार अपनया जा चुका है.
वैसे तो हर पचास अमरीकी राज्यों के चुने गए इलेक्टर्स अपनी ही पार्टी के प्रेसिडेंट को चुनते हैं और ऐसा करने का उन्हें संवैधानिक निर्देश भी है लेकिन अमरीका में 21 राज्य ऐसे हैं जिनमे इस बारे में कोई स्पष्ट क़ानून नहीं है. बैंकर और कंपनियों के दलाल मनमुताबिक प्रेसिडेंट का चुनाव असफल होते देख इसी बात का फायदा उठाते हुए इन राज्यों के इलेक्टर्स को अपने पक्ष में पटा लेते हैं और उनका एजेंडा चलता रहता है. अगर यहाँ भी बात न बनी तो अपर हाउस बहुमत से प्रेसिडेंट चुनता है और यह कोई छिपी बात नहीं है की अमरीकी अपर हाउस किस वर्ग के लोगों से भरा पड़ा है. एक और ख़ास बात है कि आज दोनों अमरीकी सदनों में जितने सदस्य हैं उसके चार गुने बैंकरों और वाल स्ट्रीट के दलाल उनके पीछे 365 दिन सक्रिय रहते हैं.
इस तरह अमरीकी प्रेसिडेंट के चुनाव में जनता के बहुमत को ट्रम्प करके करके अपना मन मुताबिक जमूरा इंस्टाल करने के लिए त्रिस्तरीय जुगाड़ भिड़ा भिड़ाया है जो कई दशकों से अच्छा प्रदर्शन कर रहा है.
दुनिया भर में इसी अमरीकी ब्रांड की डेमोक्रेसी बाँटी जा रही है, और हमारे महान देश को भी इसका प्रसाद मिलता ही रहा है!


Friday, January 13, 2017

मुक्त बाजार से मुक्ति-2: ठेंगा दिखाइए

पिछले साल के आखिरी दिन मैंने कहा था कि आपके जीवन के हर पहलू का शोषण कर रही इस छल-कपट और ढोंग पर आधारित अर्थव्यवस्था का सामाधान सीधा है पर आसान नहीं है. अब एक-एक करके उन उपायों पर गौर करते हैं जो हम अपनी तौर पर अपना सकते हैं.
आसान नहीं है अपने चारों ओर लहलहाती लालच की खेती से आँखें मूँद लेना और जीवन में सहजता ले आना, जबकि व्यक्तिगत स्तर पर सबसे प्रभावी यही उपाय है जिसका दायरा बढाकर सामूहिक किया जा सकता है. आर्थिकी की सही समझ को प्रसारित करना होगा और अधिक से अधिक लोगों को इसके दायरे में लाना होगा. उन्हें यह बताना होगा कि मुद्रा धन नहीं है बल्कि धन को लूटने का साम्राज्य के विस्तार का हथियार है. हमारे जंगल, जल और खनिज स्रोत, उपजाया गया अन्न और सामान्य जीवन यापन के अन्य उपादान ही धन हैं, जिन पर कब्जे के लिए कर्पोरेट्स लगातार कोशिश कर रहे हैं और चंदाखोर सरकारों के माध्यम से कामयाब भी हो रहे हैं. अपनी जीवन शैली में अधिकतम बदलाव लाईये और इन्हें बाकायदा ठेंगा दिखाईये.
लालच पर लगाम लगते और उपभोग कम होने के साथ ही खर्च पर काबू हो जायेगा. जब अधिक से अधिक लोग ऐसा करेंगे तो अर्थव्यवस्था का तेजी से घूमता पहिया धीमा होगा. जाहिर है इसके बाद सरकार और पूंजीपतियों/व्यापारियों की तरफ से अपने माल को खपाने की कोशिशें भी तेज होंगी लेकिन यही मोर्चा है और इस मोर्चे पर सामान्य जन उन्हें मात्र संयम और समझदारी से हरा सकते हैं. जब संयम ऊपर से आरोपित नहीं बल्कि सही समझ से पैदा होता है तभी वह मजबूत होता है. 
यह पहला कदम है, किसी भी प्रकार के मुखर विरोध से पहले का कदम, अन्यथा वे आपके विरोध के प्रयासों को भी अपनी वित्त पोषित NGOs के द्वारा प्रायोजित करके कब्जिया लेंगे और आप देखते रह जायेंगे, जैसा आज तक होता आया है.
इस पहले कदम के परिपक्व होने के बाद ही वास्ताविक विरोध की शुरुआत की जा सकती है.  विरोध के तौर-तरीके क्या हों इस पर गौर करने के पहले ठेंगा क्यों दिखाया जाए इस पर  विस्तार करते हैं ..
ठेंगा दिखाने का कारण -1
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फ़िएट मनी (यानि जिस मुद्रा को छापने के लिए उसके बराबर सोना आरक्षित रखना जरूरी न हो, आज पूरे संसार में फ़िएट मनी ही चलन में है) की सप्लाई, देश के कृषि और औद्योगिक उत्पादन के मुकबले में, सिस्टम में जितनी ज्यादा बढ़ेगी उसी अनुपात में मुद्रा स्फीति भी बढ़ेगी. इस पर सरकारें, बैंक और व्यापारी चाहते हैं कि आप उपभोग बढाएं, बचत की बजाय खर्च अधिक करें, बेशक कर्ज लेकर करें. अंधाधुंध प्रचार से बदले सामाजिक बोध के चलते कर्ज लेना अब कोई प्रतिष्ठा गवाने वाला काम नहीं रहा. EMI की जिन्दगी हमें आसान लगने लगी है. हमारे जीवन में वह चीजें काफी पहले आने लगी हैं जिन्हें हम पूरी जिंदगी की बचत के बाद ही शायद खरीद पाते. इसको सब लोग प्रगति कहते हैं.
अब जरा सोचिये, मुनाफा और व्याज जो हमारी मान्यता में आज सबसे जायज तत्त्व है, मुद्रा की चाल के साथ मिल कर कैसे खेल करता है और उसका अंतिम परिणाम क्या होता है. क्या हो सकता है. यहाँ पर घुड़सवार की कहानी फिर याद कीजिये.
आपने बैंक से कर्ज लेकर कार खरीदी, कार आपकी जरूरत थी या विलासिता या लालच---ये आप तय करें, लेकिन आपने कार खरीदी और इस्तेमाल करके खुश हैं. बैंक अपना ब्याज पाकर खुश है. कार बनाने वाली कंपनी भी अपना मुनाफा पाकर खुश है, फिर परेशानी किसको है? लेकिन परेशानी तो है और दिनों दिन बढ़ रही है.
ध्यान दीजिये आपने जो लिया उससे ज्यादा दिया, जिसकी वजह से बैंक और व्यापारी का मुद्रा भण्डार बढ़ा और उनके पास और चीजें खरीद सकने या कर्ज दे सकने की क्षमता आई. आपने जो दिया वह एक मूल्यहीन और आभासी वस्तु थी जिसे आपने किसी के श्रम कर के प्राप्त किया था लेकिन आपको जो मिला वह आभासी वस्तु नहीं है. वह जिन चीजों से बना है वे धरती से आयी हैं, लोहा, रबर, ताम्बा, एल्युमीनियम सभी कुछ.
अंधाधुंध उत्पादन और खपत बढ़ने से (क्योंकि सब कुछ बढाते जाना ही हमारा लक्ष्य है क्योंकि वही हमारे लिए प्रगति है), और फियट करेंसी के बदले सब कुछ उपलब्ध होने से प्राकृतिक सम्पदा से धरती दिन रात खाली होती जा रही है, जल संसाधन सूखते और दूषित होते जा रहे हैं, हरियाली कम हो रही है, ठीक हवा तक उपलब्ध नहीं है.
ऊपर से सरकारों और व्यापारियों का गठजोड़ आपको अधिक से अधिक खर्च के लिए उकसा रहा है, सस्ते कर्ज देने की बात कर रहा है. इसलिए आपकी अर्जित आभासी, मूल्यहीन मुद्रा हो या बस्तुएं उन दोनों की खपत सीमित कीजिये, नहीं तो बैंक और व्यापारी (सरकारों का नाम इसलिए नहीं लिए क्योंकि सरकारें आपकी नहीं उन्ही की हैं) मिलकर धरती की सारी प्राकृतिक सम्पदा लूट कर आखिर में आपको भी नंगा ही कर देंगे.
इसलिए अब ठेंगा दिखाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है.

ठेंगा दिखाने का कारण -2
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वे कहते हैं --”हमारे लिए काम करो, बदले में हमसे कागजी या डिजिटल मुद्रा लो, हमारी ही बातें सुनो, जो हम समझायें वही समझो, जो हम कहें वही तुम्हारे लिए अच्छा है, क्योंकि हमारे एक्सपर्ट, हमारे फ़िल्मी हीरो, हमारे खिलाडी हीरो, और हमारे बाबा, हमारे ज्योतिषी तुम्हारी जिंदगियों के बारे में तुमसे ज्यादा जानते हैं. हजारो सालों से संचित पारंपरिक ज्ञान कुछ नहीं है, तुम्हारे बुजुर्ग कुएं के मेढक थे, तुम दुनिया के समंदर की मछली बन जाओ, आओ हमसे मिलो हम बड़ी मछलियाँ हैं तुम्हारी हिफाजत हम करेंगीं. इसलिए जो हम बनाएं वो उसी हमारी दी हुयी मुद्रा से खरीदो. जरा जल्दी-जल्दी खरीदो. स्पीड बहुत जरुरी है, सुस्ती ठीक नहीं काम में सुस्ती, खर्च में सुस्ती, दौड़ते रहो तुम्हे आगे जाना है, यह मत पूछो किससे आगे, आगे जाओगे तो पता चल जायेगा.
है न मजेदार बात? गोल-गोल दुनिया में सीधी चाल से दौड़ते रहो !
वे फेंकते रहे तुम लपेटते रहो.
वे अपनी कागजी मुद्रा में (जिसकी कुल औकात एक पोस्ट डेटेड चेक जैसी है जो कभी बैंक में भुनाया नहीं जायेगा) स्पीड चाहते हैं. वे अपनी डिजिटल मुद्रा में भी स्पीड चाहते हैं. जिससे तेजी से आवाजाही में वह फिन्टती रहे और मलाई उतर कर उनके पास जाती रहे.
तेजी से मुद्रा फेंटने के चक्कर में आप अपनी जिंदगी नहीं जी पा रहे हैं. आपके बीच से मनुष्यता का पानी सूखता जा रहा है. फर्जी मूल्य हमारे बीच में प्रतिष्ठित हो रहे हैं. समाज में प्रेम और सहयोग के बदले स्पर्धा को महत्त्वपूर्ण स्थान मिल रहा है. एक दूसरे को काट कर अपने को श्रेष्ठ साबित करने की होड़ है.
कोई यह नहीं बताता, कोई यह नहीं समझता कि पिरामिड के शीर्ष पर जो नहीं पहुंचे (और बहुत लोग नहीं ही पहुचेंगे क्योंकि यह संभव भी नहीं है) उनको भी जीने का उतना ही अधिकार है. एक फालतू से संघर्ष में जूझते हुए हम यह अपनी नहीं किसी और की लडाई लड़ रहे है. इसमें हमारे साथ ही हमारा विरोधी भी हारेगा और जीतेगा कोई और! बड़ी महिमा इस बात की भी गई जाती है कि जीवन संघर्ष है.
खुशहाल जिंदगी को संभव बनाने वाले साधन छिनते जा रहे हैं, समय भी छिनता जा रहा है हमारे पास एक दूसरे के लिए समय नहीं बचा तो समाज कैसे बचेगा? कलाएं और संस्कृतियाँ और भाषाएँ कहाँ बचेंगी ? जीवन में विविधता कहाँ बचेगी? रंग कहाँ बचेंगे?
याद पड़ता है कि पिछली बार कब आप फुर्सत में अपने आत्मीय संबन्धों में उतर पाए? जीवन को महसूस कर पाए?
इसलिए भी उन्हें अब ठेंगा दिखाने की सख्त जरूरत है !